वैसे तो आलोक जी की उम्र तकरीबन 70 साल होगी, पर आज भी उनका जोश, जज़्बा और जीने का तरीका वैसा ही लाजवाब था जैसा शायद आज से पचास वर्ष पूर्व रहा होगा. वही सुबह 5 बजे उठना, 3 किमी दूर नये नये खुले कम्पनी बाग़ तक सैर पर जाना, रास्ते से रोज़ अखबार और कभी कभी ताजा सब्जियां लेके 7 बजे तक घर लौटना- ये सिलसिला कभी थमा नहीं.
जब तक प्रभा चाची जिन्दा थीं, उनसे भी अक्सर सुबह आलोक जी के साथ कभी सैर पे, कभी नदीम मियां की कचौरी की दुकान पे, तो कभी मण्डी में धनिया मिर्ची के लिये जिरह करते मिलना होता रहता था. लेकिन अभी कुछ साल पहले टीबी की बीमारी के चलते पहले तो प्रभा चाची का सुबह का घूमना छूटा और फिर चन्द महीनों में दुनिया ही छूट गयी. और कोई इंसान शायद उम्र के इस पडाव पर हार मान लेता, लेकिन हमारे आलोक जी कतई नही. आजकल जो ये जिम वगैरह जाने की, मैराथन और फिटनैस इत्यादि की नई परिपाटी नई पीढी ने निकाली है, आलोक जी का सुबह 5-7 का ये नियम बिना नागा 50 वर्ष से ज्यादा से अटल चला आ रहा है. 2 बेटे और 5 पोते पोतियों के होते हुए भी जिन्दादिल इतने कि हमें चाचा या ताऊजी बुलाने पर सख्त मनाही थी, सिर्फ आलोक जी ही पुकारने की अनुमति थी सभी को. देखा जाये तो बुड्ढे लोगों में 'शर्मा जी का लडका' थे हमारे आलोक श्रीवास्तव साहब.
आलोक जी का वैसे रुतबा भी कुछ कम नहीं था पूरे रामपुर में. सन् 71 की जंग बखूबी लडने के कुछ साल बाद फौज से स्वैच्छिक सेवानिव्रत्ति लेकर अपने पुश्तैनी घर और ज़मीन को सम्भालने के साथ साथ एक प्राथमिक स्कूल की भी नींव इन्होने ही सबसे पहले पश्चिमी यूपी के इस छोटे से कस्बे में रखी. फौजी तो लेकिन फौजी ठहरा. तन मन और जो कुछ भी धन था- सब कुछ अपने समाज और भावी पीढी को सही शिक्षा और देश की सेवा में अग्रसर करने के लिये न्यौछावर कर दिया. सेनानी और शिक्षक- दोनो आयामों से देेश सेवा करने के नाते आम व्यक्तियों के मुकाबले आलोक जी ने इसीलिये दुगुना सम्मान कमाया था.
आलोक जी को जिसने भी जब भी देखा, हमेशा गौरवान्वित और स्वाभिमानी पाया. तब भी जब बडा बेटा अभय पिता के पदचिन्हों पर फौज मे भर्ती हुआ. तब भी जब अपने नाम के अनुरूप अभय कारगिल युद्ध में डट के लडा. तब भी जब अभय का तिरंगे में लिपटा पार्थिव शव घर लौटा. आलोक जी के चेहरे का तेज तनिक भी कम ना होने पाया. प्रभा ने पूछा भी तो इस बूढे सिपाही ने बस इतना कहा- "हमारे बेटे की शहादत ने सिर्फ उसके पिता या परिवार ही नही, इस पूरे कस्बे का नाम रोशन किया है."
देश सेवा और देश निर्माण में भागीदारी का गौरव- आलोक जी के चेहरे का अलौकिक आलोक था.
किन्तु आज नही.
आज आलोक जी सुबह घूमने तो निकले लेकिन आज जैसे सांसों में एक अलग ही हवा घुल रही है. डर की, शर्मिंदगी की, हार की. रोज़ बच्चो बुज़ुर्गों की चहल पहल से आबाद रहने वाला कम्पनी बाग़ आज सन्नाटे की चादर औढे जैसे 3 दिन से इस फौजी का इन्तज़ार ही कर रहा है कि कब ये श्रीवास्तव साहब से पूछे- "दोस्त, पिछले 50 साल में तुम्हारे साथ सब कुछ देखा. युद्ध, शान्ति, जन्म, म्रत्यु, बाढ, भूकम्प, दुख, सुख- पर ये पिछले 3 दिन तो हमने कभी सोचे भी न थे. क्या हो गया है हम लोगों को?"
बाग़ की दहला देने वाली, जवाब मांगती खामोशी से कन्नी काटकर आलोक जी वापस चल पडे. कभी सीमा पर निडरता से गोली खाने वाला, बिना आंसू बहाये अपनी वीर सन्तान का शव स्वीकारने वाला ये व्रद्ध फौजी आज सडक पर दिख रहे द्रश्य देखकर भय से स्तब्ध है. पिछले 3 दिनों के कर्फ्यु के बीच रामपुर और आसपास के इलाकों में हिंदू-मुस्लिम दंगों ने इस इलाके के सामाजिक सौहार्द्र को जो तार तार किया है, आने वाली जाने कितनी पीढियां मिलकर भी शायद ही उस की भरपायी कर पायेंगी. किस इन्सान ने चिंगारी लगाई, किन राजनैतिक पार्टियों ने हवा दी, किस मज़हब ने पहला खून बहाया, किसने ज्यादा गले काटे- ये सब सवाल तो बेमानी हो जाते हैं, कुल जानमाल के नुकसान को जोडने पर.
"क्या इसी समाज के लिये मैंने खून और पसीना बहाया पिछले पचास साल? क्या इसी आजाद़ी के लिये मेरे अभय ने अपनी जान की कुर्बानी दी?" इन सवालों से द्वन्द्वयुद्ध करते करते अचानक आलोक जी के कदम ठिठक पडे. सामने नदीम मियां की टुटी हुई कचौरी की दुकान और बिखरा सामान देखकर आलोक जी भी टूट गये और घुटनों पर गिर पडे. मानो या ना मानो पर शायद हर वो इन्सान आज टूट गया था जिसने इस शहर की आत्मा को पिछले 3 दिनों में कतरा कतरा मरते देखा था
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