लक्ष्मीकांत जी ने अपनी सफेद चमचमाती ऑडी पुल के बिल्कुल किनारे पे रोकी और आक्रोशित मुद्रा में बाहर निकले। परन्तु पुल पर ऊपर चढते चढते किन्चित ठिठक कर रुक गये। कांपते हाथों और नम आंखों से उन्होने अपनी जेब मे रखी तस्वीर को एक बार फिर से निकालकर निहारा और आंसुओं का जो बांध अभी तक रुका हुआ था, अब टूट गया।
इस एक तस्वीर में लक्ष्मीकांत जी का समस्त संसार था। उनकी पत्नी सरिता, छोटा भाई प्रवीण, उसकी पत्नी दिव्या, अपनी 11 वर्षीय इकलौती बेटी मनु और 2 वर्ष का प्राणप्रिय भतीजा लकी - इस 40 वर्षीय प्रतिष्ठित डायमंड व्यवसायी के जीने की वजह ही यही परिवार था। और दो दिन पूर्व मनाली घूमने जाते हुए उनकी बस 60 फुट गहरी खाई में गिर गयी और 45 सवारियों में से एक भी शख्स नहीं बच पाया। भाग्यवश लक्ष्मीकांत जी बिल्कुल आखिरी समय पर इस ट्रिप पर जाने से चूक गये थे और तब से वे इसी अफसोस में डूबे थे कि काश उन सबकी जगह मौत उन्हें ले जाती। पिछले दो दिन में ये अन्दरूनी घाव इस कदर असहनीय हो उठा था कि आज लक्ष्मीकांत जी ने इसे समाप्त करने की ठान ली थी।
एक बार फिर से अपने आंसू पोंछकर वो उठ खड़े हुए और पुल के बीचों-बीच जाने के लिए चल पडे। ठीक उसी स्थान पर अपना व्यर्थ जीवन समाप्त करने जहां वे अपने मनु और लकी को आइसक्रीम खिलाने और नदी दिखाने लाया करते थे। मगर आज उस जगह उन्हे कोई और खडा दिखा। एक क्षण के लिए तो ऐसा आभास हुआ मानो कोई नीचे कूदने ही वाला हो। लगभग प्रतिक्रियात्मक तरीके से लक्ष्मीकांत जी चिल्ला उठे- "रुको, कौन है वहां?"
वो 50 एक साल का मरियल सा दिखने वाला पहनावे से कोई गरीब किसान टाइप आदमी ठिठक गया और डरते डरते बोला- "आ..आ..आपसे मतलब?"
लक्ष्मीकांत जी एक पल के लिए अपना स्वयं का गम भूलकर थोडा झेंपते झिझकते उस फटेहाल किसान के पास गये और उसके कंधे पर हाथ रखकर स्नेहपूर्वक पूछा- "भैया, मुझे पता है तुम अभी क्या करने वाले थे। मुझे बताना चाहोगे ऐसी क्या विपदा आ पडी तुम्हारी जिंदगी में?"
एक आंसू का कतरा किसान की आंखों से ढुलक गया। खुद को थोडा संयत कर उसने अपनी आपबीती सुनानी शुरू की- "साहब, मैं हरिया, यहां 90 किलोमीटर पास ही के एक गांव में रहता हूं। कुछ साल पहले सूखे से हमारी खेती-बाड़ी सब बर्बाद होई गयी। महाजन का मूल और ब्याज चुकाने में जमीनें भी हाथ से चली गयीं। हम शहर में आके मेहनत मजूरी करके, पेट काट काट कर 3 साल में कुछ 50 हजार रुपया जोडे रहे, हमार बडी बिटिया की शादी खातिर। अगले सप्ताह उसका ब्याह भई। और आज हमारे चाल से ताला तोडकर कोई हमारी खून पसीने की कमाई चोरी कर ले गया।"
"तो तुम पुलिस के पास क्यूं नही गये?"
"गये थे ना साहब। दुत्कार के भगा दिये रहे हमें बाहर से ही। गरीब आदमी हैं ना। अब हमार बिटिया की शादी अगर टूट गइल तो आतमहत्या के अलावा हमरे पास अब चारा ही का है?"- और एक बार फिर हरिया का चेहरा भीग गया।
"तुम्हारी बेटी की शादी जरुर होगी हरिया। मैं मदद करूंगा।"- लक्ष्मीकांतजी ने विस्मित हरिया के हाथों पर हाथ रखकर ढांढस बंधाया- "और ये मरने वरने का ख्याल छोडो, मेरे साथ चलो थाने में रिपोर्ट लिखाने। देखता हूं कौन मना करता है।" और लक्ष्मीकांत जी किंकर्तव्यविमूढ़ हरिया को अपनी आलीशान गाडी की तरफ ले चले।
गाडी में बैठे हुए दो आत्महत्या पर आमादा जीवन फिलहाल एक नयी उम्मीद की किरण निहार रहे थे। हरिया अपने इस देवदूत को मन ही मन धन्यवाद देते हुए एक बार फिर से अपनी बिटिया के ब्याह के सपने बुन रहा था। और लक्ष्मीकांत जी अपने आपको धिक्कारने में लगे थे। साथ ही परमात्मा को धन्यवाद भी कर रहे थे। उन्हें ये सद्बुद्धि देने के लिये कि अपने इतने बडे भारी नुकसान के बावजूद वो अभी भी कितनी और जिंदगियां बचाने में सक्षम थे।
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दोस्तों, आजकल की इस प्रतिस्पर्धाशील जीवनशैली में हम लोग हर समय एक दूसरे से होड में लगे हुए हैं। पढाई में कितने नम्बर ज्यादा, तनख्वाह में कितने ज़ीरो ज्यादा, घर में कितनी सुविधाएं ज्यादा। जहां कहीं कुछ कमी दिखी नहीं कि हम एक हीन भावना और मानसिक अवसाद को निमंत्रण दे बैठते हैं। कभी कभी ये अवसाद इस कदर हमें जकड लेता है कि अपनी समस्या का कोई और हल दिखाई नहीं देता सिवाय आत्महत्या के।
ऐसे समय में हमें चाहिए कि हम बात करें, कोई और यदि अवसाद में हो तो उसकी बात सुनें। "अब जीने लायक कुछ नहीं बचा" से "अभी कितना कुछ औरहै जीवन में"- इस द्रष्टिकोण परिवर्तन के लिये सिर्फ किसी से बात करना पर्याप्त है। बात तो कीजिये। भले ही वो चाहे कोई दूसरा अवसादग्रस्त आत्महत्या पर उतारु व्यक्ति ही क्यूं ना हो। मदद जरूर मिलती है।
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